प्रेमानंद महाराज जी का सम्पूर्ण जीवन परिचय, बचपन से लेकर आध्यात्मिक जीवन तक सफर।
कुछ समय पहले इनकी सोशल मीडिया पर काफी चर्चा हो रही थी क्योंकि उनके यहां प्रसिद्ध क्रिकेटर विराट कोहली, उनकी पत्नी अनुष्का शर्मा और उनकी बेटी वामिका कोहली आए हुए थे। वहां उन्होंने महाराज के दर्शन कर सत्संग भी सुना। जिसके बाद विराट कोहली ने दो शतक मारे।
हम कलयुग में रह रहे हैं, जहां छोटी से छोटी बात हमारे जीवन की अशांति और असंतोष का कारण बन जाती है। जो पास नहीं उसे पाने के जो पास हैं उसे खोने का डर लगा रहता है। ईर्ष्या, द्वेष, काम लालच से भरे इस अंधेरे वक्त में एक रौशनी की तरह जो देख रहे हैं, जिन्हें देख के मन शांत हो जाता है।
जिन्हें सुनकर आपको एक ऐसी मूल्यवान चीज मिलती है जो बहुत रहस्यमयी और गुप्त है। वह राधा नाम का प्रकाश। मैं बात कर रहा हूं, गुरुदेव श्री हित प्रेमानंद महाराज जी जिनकी वाणी से केवल एक ही प्रेमरस सुनने को मिलता है और वो है राधा, राधा, राधा।
आज के वक्त में अगर हम महाराज जी के जीवन को समझे तो हमें बहुत सी ऐसी बातें सीखने को मिलती हैं जिन्हें हम अपने जीवन में उतार कर सहज ही भगवत प्राप्ति कर सकते हैं। अपने जीवन के सारे काम सार्थक और सफल बना सकते हैं। अगर आपको अपना यह आरामदायक जीवन मुश्किल लगता है तो आइये मैं आपको बताता हूँ असली कष्ट और तकलीफ से भरा जीवन होता क्या है?
प्रेमानंद महाराज जी का नाम तो सुना ही होगा आपने। आज उनके बारे में थोड़ा जान भी लेते हैं। तो आइए जानते हैं प्रेमानंद जी महाराज का जीवन जन्म, उम्र और परिवार की कहानी, इत्यादि। तो सबसे पहले शुरुवात करते हैं प्रेमानंद महाराज का जीवन परिचय से।
प्रेमानंद महाराज जी का बचपन जीवन।
प्रेमानंद जी महाराज को पीले बब्बा के नाम से भी जाना जाता है। इनके दादा संन्यासी थे। बुजुर्गों का आशीर्वाद होने की वजह से उनके घर का वातावरण अत्यंत शुद्ध, निर्मल और भक्तिपूर्ण रहा करता था। उनका पूरा परिवार संत होने की वजह से उनके घर पर संतों और महात्माओं का आना जाना लगा रहता था। हमेशा उनकी बातें और सत्संग सुनकर उनके मन व हर्दय में अध्यात्म की बातें बैठ गई थी। प्रेमानंद जी महाराज का जीवन भक्ति भावना से भरा है।
पूज्य महाराज जी एक विनम्र और अत्यंत पवित्र ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। उनकी पैदाइश ही एक गरीब ब्राह्मण परिवार में कानपुर, उत्तरप्रदेश में हुई थी। उनकी माता का नाम श्रीमती रामा देवी और पिता का नाम श्री शंभू पांडे था। उनका नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे रखा गया था।
जब महाराज जी कक्षा 5 में पढ़ते थे तब उन्हें एक बात सताने लगी कि एक दिन मेरी मां मर जाएगी, मेरे पिता भी मर जाएंगे। कोई भी यहां टिकाऊ या स्थायी नहीं, सब मरने वाले हैं।
उनको यह एहसास हुआ कि किससे हम अपना मानें, किससे हम अपनापन करें। यहां सब कुछ नष्ट होने वाला है। कभी भी कोई भी मर सकता है। कोई तो ऐसा होना चाहिए जिससे हम प्यार करें और वह सदेव हमारे पास रहे। तब एक रास्ता निकला कि एकमात्र भगवान के सिवा कोई ऐसा नहीं जो हर पल और हमेशा हमारे साथ रहे, चाहे दुख हो या सुख। इस बात ने उन्हें भगवान को पाने के लिए प्रेरित किया।
प्रेमानंद महाराज का घर का माहौल।
घर का माहौल अध्यात्मिक होने की वजह से प्रेमानंद जी महाराज ने कम उम्र में चालीसा पाठ पढ़ना शुरू कर दिया था। उनके माता पिता हमेशा संत सेवा और अनेक सेवा में लगे रहते थे। उनके बड़े भाई ने श्रीमद भागवत के श्लोक पढ़कर परिवार को आगे बढ़ाया। जब प्रेमानंद महाराज पांचवीं कक्षा में थे तब उन्होंने गीता श्री सुखसागर पढना शुरू किया। स्कूल में पढ़ाई के दौरान उनके मन में बहुत सारे सवाल उठते थे। उत्तर निकालने के लिए उन्होंने श्री राम और श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे का जाप किया।
जब वे नौवीं कक्षा में आए तब उनके उन्होंने ईश्वर की खोज करने के लिए अध्यात्मिक जीवन जीने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। उनके लिए यह सब कुछ त्यागने को तैयार थे। उन्होंने अपनी मां को अपने निर्णय के बारे में बताया। और फिर 13 वर्ष की उम्र में प्रेमानंद महाराज जी ने एक दिन मानव जीवन जीने के पीछे की सच्चाई जानने के लिए अपना घर छोड़ दिया।
13 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर का त्याग कर भाग बड़े भगवान की तरह और भाग के वाराणसी के घाटों में गए। पिता जी जब उन्हें मनाने आये तब उन्होंने बस कहा मुझे भगवत प्राप्ति करनी है। उनके पिता मान गए और बोले कि जो करना है करो। और यह कभी सुनने में भी नहीं आना चाहिए कि तुम किसी भी बुरे विचार या गंदे आचरण में हो। अगर ऐसा सुनने में आया तो किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी। हम खुद ही तुम्हें मार देंगे। महाराज जी ने वचन दिया, हमें केवल भगवत प्राप्ति से मतलब है। आपको कुछ गलत सुनने में नहीं आएगा।
प्रेमानंद महाराज जी के गुरुजी के बारे में।
प्रेमानंद महाराज जी के गुरू का नाम श्री गुरूजी शरण जी महाराज था। इन्होंने 10 वर्षों तक अपने गुरू की सेवा की। उसके बाद अब प्रेमानंद महाराज जी की 60 वर्ष की लगभग उम्र हो गई है। घर छोड़ने के बाद प्रेमानंद महाराज जी को नैष्ठिक ब्रह्मचर्य में दीक्षित किया गया था। उनका नाम बदलकर आनंदस्वरूप ब्रह्मचारी नाम रखा गया। उनके बाद उन्होंने संन्यास स्वीकार कर लिया था। महावाक्य को स्वीकार करने पर उनका नाम स्वामी नंदाश्रम रखा गया।
इसके बाद ईश्वर को पाने के लिए कठिन तपस्या की और ठान लिया कि तब से उनका सारा जीवन भगवान की भक्ति में समर्पित हो गया है। अब वे अपना ज्यादा समय अकेले में बिताना पसंद करते हैं। भोजन पाने के लिए भिक्षा मांगते और कई दिनों तक उपवास करते और हमेशा भगवान की लीला में मग्न रहते थे। प्रेमानंद जी ने शरीरिक चेतना के ऊपर उठकर मोह माया को छोड़कर पूर्ण त्याग का जीवन व्यतीत किया।
उनके बाद उन्होंने कार्यवृत्ति को स्वीकार किया। यानि बिना किसी व्यक्तिगत प्रयास के केवल वही स्वीकार करना जो भगवान का दिया गया हो और किसी चीज की उम्मीद नहीं करना। सन्यासी के रूप में उनका अधिकांश समय गंगा नदी के किनारे बीतता था क्योंकि प्रेमानंद महाराज जी ने कभी भी आश्रम के पदानुक्रमित जीवन को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सब कुछ त्याग दिया था। ज्यादा समय गंगा नदी के साथ बिताने से उन्होंने गंगा नदी को अपना दूसरी मां के रूप में स्वीकार कर लिया।
प्रेमानंद महाराज जी के व्यावहारिक जीवन।
वे खाना, मौसम और कपड़े की परवाह किए बिना ही वाराणसी और हरिद्वार नदी के घाटों पर घूमते रहे। उनकी दिनचर्या कभी नहीं बदलती थी। फिर चाहे कितनी भी ठंड क्यों न हो। वे हमेशा गंगा नदी में तीन बार स्नान जरूर करते थे। उपवास लेने के लिए उन्होंने कई दिनों तक भोजन को त्याग दिया था। ठंडा मौसम होने की वजह से उनका शरीर कांपने लग गया था क्योंकि वे भगवन के ध्यान में लगे हुए थे इसलिए उनको कुछ एहसास नहीं हुआ।
संन्यास और आस्था के कुछ वर्षों बाद उन्हें भगवान शिव का आशीर्वाद मिल गया। प्रेमानंद महाराज जी की दया और ज्ञान पर प्रभु शिव का पूरा आशीर्वाद था। एक दिन वे बनारस में एक पेड़ के नीचे दिए। कर रहे थे तभी वे श्री श्यामा श्याम की कृपा से वे वृंदावन की महिमा के प्रति आकर्षित हुए।
बाद में उन्होंने एक रासलीला में भाग लिया। उन्होंने करीब एक महीने तक रासलीला में भाग लिया। उनकी दिनचर्या सुबह से समय श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला और रात में श्री श्यामा श्याम की रास लीला देखना था। एक महीने के अंदर ही वे लीला में इतने मगन और आकर्षित हो गए कि वह उनके बिना अपने जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे। एक समय महिमा में उनका जीवन पूरी तरह बदल गया था।
प्रेमानंद महराज जी का आध्यात्मिक संगठन।
वृन्दावन में एक अध्यात्मिक संगठन है। इस संगठन की स्थापना प्रेमानंद प्रेमानंद महाराज जी के द्वारा हुई है। प्रेमानंद महाराज जी का मुख्य उद्देश्य तथा वृन्दावन में विभिन्न धार्मिक कार्यों को करना और उनके माध्यम से प्रेम और शांति को फैलाना। प्रेमानंद महाराज जी की उम्र अभी लगभग 60 साल है। वह अभी वृन्दावन में रह रहे हैं और अपना पूरा ध्यान अध्यात्मिक गतिविधियों, भगवान कृष्ण का ध्यान और निस्वार्थ सेवा में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
प्रेमानंद जी महाराज वृद्धावस्था में होने के बावजूद भी उनका स्वास्थ्य अच्छा है। इतना ही नहीं उनके ज्ञान और दर्शन करने के लिए भारत के देश के ही नहीं बल्कि विदेश के भी लोग उनके पास आते हैं और उनका बहुत सम्मान करते हैं। वे अपने ज्ञान और दर्शन के लिए पूरी दुनिया में सम्मानित हुए हैं।
प्रेमानंद जी का वाराणसी में जीवन।
उसके बाद उनका आधा जीवन वाराणसी के घाटों में अत्यंत कष्ट से गुजरा। शुरुआत में उनकी तपस्थली वाराणसी थी। वाराणसी में महाराज जी का नित्य प्रति का नियम था कि गंगा जी में दिन भर में तीन बार स्नान करे तुलसी घाट पर एक विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर कुछ देर तक बैठकर गंगा जी और भगवान महादेव का ध्यान करना।
उसके बाद वही भिखारियों की लाइन में बैठकर इंतजार करना कि थोड़ा कुछ खाने को मिले और वह भी दिन में केवल एक बार 10 से 15 मिनट के लिए भिखारियों के बीच में बैठें। यदि इतने समय में कोई आकर दे गया कुछ खाने को तो ठीक नहीं तो गंगा जल पीकर भगवान का ध्यान करते हुए उठकर चल दिए। अपने 24 घंटे के एकांतवास के लिए, इस प्रकार की दिनचर्या में प्रेमानंद महाराज जी को कई कई दिनों तक बिना भोजन के ही मात्र गंगा जल पीकर ही रहना पड़ता।
और ऐसे में यदि कोई रोटी खाता हुआ दिख जाए तो महाराज जी सोचते। हे प्रभु, यह कितना भाग्यशाली है जो इसे रोटी खाने को मिल रही है। सर पर छत नहीं क्योंकि उन्होंने किसी भी जगह रहने का त्याग कर खुले आकाश के नीचे घाटों पर रहने का निश्चित किया था। कड़ाके की ठंड में भी तीन तीन बार गंगा स्नान करना शरीर पर डालने के लिए एक मोटा कपड़ा तक नहीं था।
चट्टी के बोरे को सिलकर पहनते थे। फिर भी महाराज जी कहते हैं भगवान की कृपा से आज तक एक सर्दी बुखार भी उन्हें नहीं हुआ। खाने के नाम पर गंगा जल या फिर भिक्षा में थोड़ा सतुआ मिल जाता था। वह इससे ही गुजारा कर केवल भगवत चिंतन और भगवान को पाने की इच्छा यही उन्हें इतना बल दे रही थी।
माहराज जी का वृन्दावन का सफर।
प्रेमानंद महाराज जी कुछ समय के बाद स्वामी जी की सलाह से और श्री नारायण दास भक्तमाली के एक शिष्य की मदद से मथुरा जाने को तैयार हो गए। वह नहीं जानते थे, वृन्दावन हमेशा के लिए उनका दिल चुरा लेगा। प्रेमानंद महाराज जी वृन्दावन में किसी को नहीं जानते थे। प्रेमानंद महाराज जी वृंदावन रहने लगे। उनके दिन की शुरुआत वृन्दावन की परिक्रमा और श्री बांके बिहारी के दर्शन करना था। प्रेमानंद महाराज जी पूरा दिन राधावल्लभ जी को देखते रहते थे।
एक दिन वृन्दावन के पुजारी ने प्रेमानंद महाराज जी को श्री राधा रस सुधा निधि का एक श्लोक सुनाया लेकिन वह उनके अर्थ को नहीं समझ सके। अर्थ को समझने के लिए गोस्वामी जी ने उन्हें श्री हरिवंश जी का जाप करने को बोला। प्रेमानंद महाराज जी ऐसा करने से हिचक रहे थे क्योंकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया था। उनके दूसरे दिन बाद जब प्रेमानंद महाराज जी ने वृन्दावन की परिक्रमा की तो उन्होंने खुद को श्री हरिवंश महाप्रभु का नाम जाप करते हुए पाया। एक प्रकार से यह श्री हरिवंश की लीला में मग्न हो गए।
बनारस में तो अत्यंत कष्ट से जीवन चल ही रहा था, लेकिन असली मुसीबत तब आई जब पता चला इनकी दोनों किडनी खराब हो गई है। जहां रहते थे वहां से निकाल दिए गए। कब मर जाए कुछ पता नहीं। यह बताने से पहले हम यह देखते हैं कैसे महाराज जी वाराणसी से वृंदावन आए। शिवजी की कृपा से उन्हें राधा रानी की नगरी में स्थान मिला। रोज की तरह उस दिन भी महाराज जी ध्यान में बैठे हुए थे।
अचानक से उनके हृदय में भगवान महादेव जी की कृपा से प्रेरणा हुई कि कैसा होगा वृंदावन? पर उन्होंने इस बात पर उतना ध्यान नहीं दिया। अगले दिन फिर रोज के नियम अनुसार तुलसी घाट पर बैठे हुए थे। तभी एक अपरिचित अनजान संत उनके पास आए और बोले कि भाई जी श्री हनुमान जी का विश्वविद्यालय जो काशी में स्थित है उस में श्री राम शर्मा आचार्य जी द्वारा एक धार्मिक आयोजन का प्रबंध किया गया है जिसमें दिन में श्री चैतन्य लीला एवं रात्रि में रास लीला का मंचन होना है। चलो महात्मा हम दोनों लीला का दर्शन करने चलते
हैं।
महाराज जी ने कभी रास लीला तो नहीं देखी थी। महाराज जी का स्वभाव था हमेशा एकांत में रहना और एकान्तवास करना। इसलिए उन्होंने उन बाबा जी से कह दिया आप जाइए, मुझे आवश्यकता नहीं है।
तो बाबा जी फिर बोले अरे महात्मा! श्रीधाम वृंदावन से कलाकार आए हुए हैं और यह लीला पूरे एक महीने तक चलेगी। चलो चलकर दर्शन करके आते हैं, बड़ा आनंद आएगा।
महाराज जी फिर बोले। आपको दर्शन करने जाना है तो आप जाइए। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। मैं अपने में मस्त हो, आप मुझे क्यों छेड़ रहे हैं?
पर बाबा जी कहां मानने वाले थे? वे फिर बोले, अरे महात्मा! बस एक बार मेरी बात मान लो। सिर्फ एक बार मेरे कहने पर चलो, फिर मैं दोबारा नहीं कहूंगा।
महाराज जी ने सोचा की यह बाबा जी इतना हठ क्यों कर रहे हैं? शायद इसमें महादेव जी की कोई इच्छा होगी। ऐसा सोचकर और उन बाबा जी की बात रखने के लिए महाराज जी उन बाबा जी के साथ लीला देखने चले गए। चूंकि दिन का समय था और श्री चैतन्य लीला का मंचन हो रहा था। महाराज जी ने लीला देखी तो बड़ा आनंद आया। चैतन्य लीला देख कर महाराज जी को इतना आनंद आया कि रास लीला प्रारंभ होने के पहले महाराज जी वहां लीला देखने पहुंच गए।
श्री चैतन्य लीला और रास लीला से महाराज जी इतने प्रभावित हुए कि एक महीने तक उनका यही नियम बन गया। हर दिन महाराज जी लीला का दर्शन करने जाते और इस आनंद में कब एक महीने बीत गए पता ही नहीं चला। जैसे ही लीला का समापन हुआ तब महाराज जी को ज्ञात हुआ की अरे लीला तो समाप्त हो गई। सारे कलाकार वापस वृंदावन जा रहे हैं। अब मेरा क्या होगा?
यह सोचकर उनके मन में हाहाकार मच गया। अब मैं क्या करूंगा? मेरा क्या होगा? अब मैं जिऊंगा कैसे? मुझे तो अब वृंदावन जाना है। महाराज जी सोचने लगे, यह सब कलाकार वापस वृंदावन जा रहे हैं तो वृंदावन में भी यह सब ऐसे ही लीला का आयोजन करते रहते होंगे। अगर मैं इनके साथ लग जाओ तो मुझे रोज लीला देखने को मिलती रहेगी। इसके बदले में मैं इनकी सेवा करता रहूंगा। मन में ऐसा भाव लेकर महाराज जी टीम के संचालक के पास पहुंचे और उन्हें साष्टांग दंडवत करके अपने मन के भाव उनके सामने प्रकट किए।
उनोहने कहा की स्वामी जी, हम गरीब बाबा हैं। हमारे पास पैसे तो हैं नहीं, मैं आपकी सेवा करूंगा। मुझे अपने पास रख लो। संचालक महोदय बड़े ही विनम्र भाव से बोले कि अरे नहीं बाबा, ऐसा तो संभव ही नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है?
तब महाराज जी बोले कि स्वामी जी हम सिर्फ रासलीला देखना चाहते हैं और कुछ नहीं। तब संचालक महोदय फिर बोले, बाबा तू बस एक बार वृंदावन आजा। बिहारी जी तुझे छोड़ेंगे नहीं। श्री हित प्रेमानंद महाराज जी कहते हैं कि इस वाकये ने मेरा जीवन बदलकर रख दिया। मैं इस वाक्य को गुरु मंत्र मानता हूं और उन संचालक महोदय को अपना गुरु। बस इसके बाद उनके मन में एक ही लगन लग गई कि मुझे वृंदावन जाना है, मुझे वृंदावन जाना है। मुझे कैसे भी वृंदावन जाना है।
यह होती है भूत भावन भगवान भोले नाथ की अहैतुकी कृपा। कल तक जो महाराज जी अपने नित्य के नियम अनुसार भगवान का ध्यान करते हुए अपने भजन और एकांतवास में मस्त थे, आज वह वृंदावन जाने के लिए पागलों की तरह हठ लगाये बैठे हैं। भगवान की कृपा को आप इस तरह अनुभव कीजिये कि पहले अनायास ही मन में प्रेरणा आना की कैसा होगा वृन्दावन।
फिर उसी समय अचानक से रासलीला का आयोजन होना जिसकी सूचना किसी अपरिचित बाबाजी द्वारा महाराज जी को देना और उन्हें हठपूर्वक लीला में ले जाना और उसके बाद महाराज जी के मन में प्रेरणा होना कि मुझे वृन्दावन जाना है, यह कृपा नहीं तो और क्या है।
संकट मोचन हनुमान जी का आशीर्वाद।
एक माह की लीला का दर्शन करने के बाद महाराज जी फिर अपने पुराने नियम के अनुसार गंगाजी में स्नान कर तुलसी घाट पर बैठ कर ध्यान करने लगे और भिक्षा के लिए बैठ कर एकांतवास के लिए निकल जाने वाला उनका क्रम फिर से शुरू हो गया। लेकिन इस दिनचर्या में एक नई बात जुड़ गई। वह बात यह थी कि मुझे वृंदावन जाना है। मुझे बस कैसे भी वृंदावन जाना है। यह क्रम कुछ दिन तक ही चला।
एक दिन महाराज जी प्रातः काल तुलसी घाट पर ध्यान में बैठे हुए थे। पास में ही स्थित संकट मोचन हनुमान मंदिर के बाबा युगल किशोर जी प्रशाद लेकर महाराज जी के पास आए और बोले कि लो बाबा प्रसाद ले लो। अब महाराज जी ठहरे एकांतवासी। उनका किसी से परिचय तो था नहीं और ऐसे ही कोई अचानक आकर कुछ खाने को दे दें, यह उन्होंने उचित नहीं समझा। इसलिए वे बोले, क्यों ले लो, यह मुझे ही क्यों दे रहे हो? इतने सारे लोग हैं, किसी को भी दे दो।
युगल किशोर जी बोले बाबा अंदर से प्रेरणा हुई है। यह प्रसाद आप ही को देना है। संकट मोचन का प्रसाद है, ले लीजिए। जब महाराज जी को उनके व्यवहार से प्रतीत हुआ कि इनसे कोई खतरा नहीं है, तब महाराज जी ने वह प्रसाद स्वीकार कर लिया, प्रसाद पाया। उसके बाद बाबा युगल किशोर जी बोले, बाबा चलो मेरी कुटिया। उनके इतने प्यार से बोलने पर महाराज जी उनकी कुटिया में गए जहां युगल किशोर जी ने अपने हाथ से दाल रोटी बनाकर महाराज को खिलाया।
इससे महाराज जी की भूख तो शांत हो गई लेकिन उस भूख का क्या जो उनके मन में लगी है। चाहे कैसी भी परिस्थितियां क्यों ना हो महाराज जी के मन में एक बात हमेशा खटकती रहती है मुझे वृंदावन जाना है, मैं वृंदावन कैसे जा पाऊंगा?
चूंकि युगल किशोर जी उन्हें भले मनुष्य प्रतीत हो रहे थे, इसलिए उनसे रहा नहीं गया और वे तुरंत कह उठे, क्या आप मुझे वृंदावन पहुंचा सकते हैं? अब यह तो भगवान की लीला ही है मानो युगल किशोर जी इस प्रश्न के लिए तैयार ही बैठे थे। प्रश्न सुनते ही वे झट से बोले, हां, हां बाबा जरूर पहुंचा सकता हूं।
बताइए आपको कब जाना है? महाराज जी बोले हम तो तैयार ही बैठे हैं। जब आप व्यवस्था कर दो तब चले जाएं। युगल किशोर जी बोले ठीक हैं आप कल की तैयारी कीजिए। कल ही आपको वृंदावन ले चलूंगा। जो इतना सुना महाराज जी के आनंद का तो ठिकाना ही नहीं रहा। उनका रोम रोम रोमांचित हो उठा। मन प्रसन्न हो गया। कल वृंदावन जाना है। आखिरकार कल वृंदावन जाना है।
युगल किशोर जी ने मथुरा जाने वाली रेलगाड़ी में महाराज जी को बैठा दिया। अब देखो रेलगाड़ी में मथुरा की यात्रा के दौरान दो लोगों से महाराज जी का परिचय हुआ जो महाराज जी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें कुछ रुपए देने लगे। चूंकि महाराज जी के पास ₹1 भी नहीं था पर फिर भी उन्होंने रुपए लेने से इनकार कर दिया। तब वे दोनों लोग महाराज जी से बोले हम भी मथुरा जा रहे हैं, आप हमारे साथ चलो, हम जहां ठहरे हैं आज रात आप भी वहीं विश्राम करके कल सुबह वृंदावन चले जाना।
ठीक है भैया, आज तुम्हारे साथ रुक जाता हूं। मथुरा में राधे श्याम गैस्ट हाउस के बाहर महाराज जी को बैठा कर वे लोग बोले हम अंदर जा रहे हैं, थोड़ी देर में आपको बुलाएंगे। रात का समय था और ठंडी का मौसम था। महाराज जी गैस्ट हाउस के बाहर बैठकर अपने बुलावे का इंतजार करने लगे। पर बहुत समय बीत गया। कोई बुलाने नहीं आया।
कुछ देर बाद मथुरा से वृंदावन चले जाएंगे। इन्हीं विचारों में खोए हुए प्रेमानंद महाराज जी राधेश्याम गैस्ट हाउस के बाहर बैठे हुए थे। उस समय रात्रि के 11:00 बजे के आसपास समय हो रहा होगा। तभी एक सज्जन आए और बोले बाबा जय श्री कृष्णा। कैसे बैठे हो अकेले इतनी रात को यहां? महाराज जी ने सारी कहानी उन सज्जन को बताई।
वे सज्जन महाराज जी को अपने घर ले गए। उन्हें भरपेट स्वादिष्ट भोजन कराया और रात्रि को विश्राम कराया। अगले दिन सुबह होते ही महाराज जी सबसे पहले पहुंचे यमुना जी। यमुना जी में स्नान करके सीधा पहुँच गए केशवदेव जी के दर्शन करने। जैसे ही दर्शन किए। चिल्ला चिल्ला कर रोना आ गया क्योंकि भगवान कृष्ण के लिए ही आये थे।
महाराज जी भाव में खोकर भगवान का नाम लेकर चिल्ला चिल्ला के रोने लगे। मानो अब तक के जीवन का सार मिल गया हो। मन में ऐसे भाव उठने लगे कि अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया। पूरा जीवन भागदौड़ में व्यतीत हो गया। आखिरी मंजिल तो यही है। इस प्रकार के भाव के कारण खूब जोर जोर से चिल्ला - चिल्ला कर रोने लगे।
महाराज जी के स्वरूप का वर्णन करूँ तो बड़ी बड़ी जटाएं, चहरे पर एक अप्रतिम चमक, विशालकाय शरीर, बड़ी बड़ी दाढ़ी और शरीर पर बस एक वस्त्र लपेटे हुए भगवान का दर्शन कर रहे हैं और फूट - फूट कर रोए जा रहे हैं। उन्हें इस बात का जरा भी खयाल नहीं कि वे कहां खड़े हैं, क्या कर रहे हैं, उन्हें कौन - कौन देख रहा है। बस रोए जा रहे हैं, रोए जा रहे हैं।
मंदिर में आए अन्य लोग आश्चर्य चकित हो गए। यह दृश्य देखकर ऐसा लग रहा था मानों आज भगवान स्वयं अपने भक्तों को दुलारने प्रकट हो गए हों। पूरा मंदिर वात्सल्य से भर गया। लोग आपस में चर्चा करने लगे। अरे बाबा जी! को देखो कैसे भगवान की याद में रो रहे हैं और देखते ही देखते कुछ ही क्षणों में महाराज जी के चारों तरफ दर्शनार्थियों की भीड़ जमा हो गई। कोई उन्हें फूल माला पहना रहा है, कोई उनके चरणों में गिर रहा है। तभी एक दर्शनार्थी बोला हे बाबा! मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। आप आदेश करें।
महाराज जी के मन में तो बस एक ही इच्छा थी मुझे वृंदावन जाना है। कैसे भी मुझे वृंदावन पहुंचा दो। उस भक्त ने साधन की व्यवस्था करके महाराज जी को मथुरा से विदा किया। उस गाड़ी वाले ने महाराज जी को रमणरेती तिराहा में उतार दिया।
रमणरेती में कुछ देर घूमने के बाद महाराज जी की भेंट होती है संत श्री श्याम सखा जी से। उनसे महाराज जी ने निवेदन किया कि मैं बनारस से आया हूं। बिहारीजी के दर्शन करना चाहता हूं। यदि तीन चार दिन रहने की व्यवस्था हो जाए तो बड़ी कृपा होगी। इस प्रकार महाराज जी ने वृंदावन वास एवं ब्रजमंडल दर्शन का खूब आनंद लिया।
प्रेमानंद महाराज का सवास्थ जीवन।
कहा जाता है कई सालों से उनके दोनों गुर्दे खराब हैं। उसके बावजूद भी वे अभी तक स्वस्थ हैं। उनका मानना है उनका सारा जीवन राधा जी की सेवा और भक्ति के है। सब कुछ उन्होंने भगवान के हाथ में छोड़ दिया है। आज भी उनकी दिनचर्या, भक्ति करना और वहां आने जाने वाले भक्तों से मिलकर उनकी समस्या को सुनकर उनका हल निकालते हैं।
महाराज जी के जीवन में बहुत उतार चढ़ाव थे, लेकिन अब उनके जीवन में ऐसा गिराव आया जो उन्हें राधारानी के बिल्कुल करीब ले गया। श्री प्रेमानंद महाराज जी कहते हैं जब मेरी आयु 35 वर्ष के लगभग हुई तो उस समय तक मेरे पेट में बहुत ज्यादा पीड़ा बढ़ गई थी। जिस कारण मैं रामकृष्ण मिशन में जांच कराने गया तो डॉक्टर मुझे बोले कि तुम्हारी दोनों किडनियां आधे से ज्यादा खराब हो चुकी हैं। तुम्हें पॉलीसिस्टिक किडनी डिसीज नाम का रोग है। इस बीमारी में किडनी पर गांठें हजारों की संख्या में बन जाते हैं।
कभी - कभी किडनी फटने का भी खतरा रहता है। किडनी का यह रोग जीन्स में होता है। माता पिता से बच्चों में आता है और कुछ ही सालों में किडनी पूरी तरह से खराब हो जाती है। तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा 4 से 5 साल का वक्त है, इससे अधिक नहीं। इसके बाद तुम मर जाओगे। महाराज जी बताते हैं की मेरी ऐसी दशा हुआ करती थी। मैं वही खा सकता था, जो मांगकर लाता था। यदि किसी दिन भिक्षा नहीं मिलती तो कुटिया में भूखे पड़े रहते थे।
लेकिन महाराज जी के विचार और उनके भगवान् के इस प्रेम से दुनिया बहुत प्रभावित हुए और फिर उनके भक्त बनते चले गए। और फिर उनका इलाज भी कराया गया और फिर प्रेमानंद महाराज नई भगवान् की कृपा से संगठन को बनाया जिसके दर्शन करने लोग दूर - दूर से आते हैं। और उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को सुखद बनाते हैं।
निष्कर्ष :
तो दोस्तों यह था प्रेमानंद महाराज जी का जीवन परिचय। अगर आप प्रेमानंद महाराज जी से मिलना चाहते हैं तो उसके लिए आपको राधा केलि कुञ्ज वृन्दावन से टोकन को लेना होगा। सत्संग में कुल मिलाकर तीन प्रकार के टोकन होते है जैसे कीर्तन, एकांतिक और वार्तालाप। अगर आपको प्रेमानंद प्रेमानंद महाराज जी से सम्बंधित कोई भी सवाल हो तो आप हमे कमेंट कर के पूछ सकते हैं। तथा अगर आप प्रेमानंद प्रेमानंद महाराज जी के भक्त है तो आप इस लेख को जरूर शेयर कीजियेगा।
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